सूरदास जीवन परिचय | Surdas jeevan prichay
कवि परिचय -
भक्ति काल की कृष्ण भक्ति के सगुण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि 'सूरदास' हैं। इनका जन्म संम्वत 1540 में हुआ था। माना जाता है कि इनका जन्म आगरा और मथुरा के बीच स्थित 'रूनुकता' ग्राम में हुआ था।
सप्रसंग व्याख्या - 1👉
कुछ विद्वानों का मत है कि दिल्ली के निकट 'सीही' गांव इनका जन्म स्थान है।
उनके पिता का नाम 'रामदास' था। भक्तमाल और वार्ता साहित्य के आधार पर इनको सारस्वत ब्राह्मण माना जाता है किंतु 'साहित्य लहरी' में एक पद है जिससे यह पृथ्वीराज के राज कवि 'चंद्रवर बाण' के वंशज ब्रह्मभट्ट मालूम होते हैं। इस पद से उनके बारे में कई बातों का ज्ञान होता है। सूरदास जी अंधे थे वे जन्म से अंधे थे या बाद में अंधे हुए यह विवाद का विषय है। विद्वान इस विषय में एकमत नहीं है। किंतु सूरदास ने अपने साहित्य में कृष्ण की बाल लीलाओं का जिस प्रकार वर्णन किया बालकृष्ण के जिस प्रकार चित्र उतारे हैं प्रकृति का भी इतना सुंदर चित्रण सूरदास जी ने किया है यह मानने में संदेह है कि सूरदास जी जन्मांध थे। है कि ये नेत्रहीन होने के कारण एक 'अन्धकूप' में जा गिरे थे 6 दिन तक वहाँ पड़ने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें दर्शन दिए और उन्हें नेत्र प्रदान किए। इस पर सूरदास ने कहा "हे प्रभु! जिन नेत्रों से आपके दर्शन हुए अब उन्हें मैं सांसारिक पापों को नहीं देखना चाहता हूं।" सूरदास के निवेदन से उनके नेत्र सदा के लिए बंद हो गए लेकिन उन्हें 'प्रज्ञा चक्षु' प्राप्त हो गए अर्थात ज्ञान प्राप्ति।
यह विवादास्पद है कि सूरदास जन्मांध थे। इस संबंध में अधिकतम विद्वानों का मत है कि यह जीवन के अंतिम समय में नेत्रहीन हुआ। और इसका प्रमाण हमें उनके पदों से प्राप्त होता है -
"या माया झूठी की लालच दुहुँ दृग अंध भयो"
सूरदास को आचार्य वल्लभ ने अपने सिद्धांतों में दिक्षित किया उसी समय से उनकी भक्ति 'दास्यभाव' से 'साख्य भाव' में संशोधित हो गयी ।
रचनाएँ
वैसे तो सूरदास जी द्वारा रचित 25 रचनाओं का उल्लेख मिलता है परंतु प्रामाणिक रूप में सूरदास जी की तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं- 'सूरसागर' 'साहित्यलहरी' और 'सूर सारावली'। उनके सभी काव्य श्री कृष्ण भक्ति धारा से ओतप्रोत है। में उसने श्रीकृष्ण की बाल - लीला, संज्ञा - वियोग रूप - माधुरी बना और भक्ति से संबंधित यह पदों की रचना।
सूरदास की काव्यगत विशेषताएं -
१. सगुण ईश्वर की उपासना -
सूरदास जी ईश्वर के साकार रूप की भक्ति करते थे जिसको की सगुण भक्ति भी कहा जाता है । सूरदास जी का मानना था कि निराकार अथवा निर्गुण ईश्वर को प्राप्त करना असंभव है।
अविगत गति कछु कहत ना आवै
ज्यों गूंगे मीठे फल को रस अंतरगत ही भावै ।
×××××××××××××××××××××××××
रूप रेख गुण जाती जुगति बिनु, निरालम्ब कित धावै
सब विधि अगम विचारहि , तातै सूर सगुन लीला पद गावै
२. बाल लीला का वर्णन -
सूरदास जी ने अपनी रचनाओं में श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का बड़ा ही मनोहारी चित्रण किया है। कृष्ण की छोटी-छोटी क्रीड़ाओं, बाल-हठ, श्री कृष्ण का माखन चुराना, छोटे-छोटे कदमो से चलना आदि का वर्णन बड़ा ही अलौकिक वर्णन किया है।
शोभित कर नवनीत लिए
घुटुरुनि चलत रेनू तनु मंडित मुख दधि लेप किए
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
्
अपने कर अर्थात हाथ में नवनीत अर्थात् माखन लिए हुए बड़े ही सुंदर लग रहे हैं। कृष्ण घुटनों के बल चल रहे हैं उनके तन पर रेनू अर्थात मिट्टी का लेप लगा हुआ है और मुख पर दही लगा हुआ है श्रीकृष्ण की सुंदरता का वर्णन करते हुए बताया कि उनके कपोल अर्थात गाल सुंदर लग रहे हैं शरारत की लालिमा लिए हुए उनके नेत्र हैं। और उनके मस्तक पर चंदन का तिलक लगा हुआ है।
३. वात्सल्य वर्णन -
मां के हृदय में बच्चे के प्रति जो स्नेह होता है उसे वात्सल्य भाव कहते हैं । सूरदास ने जैसा वात्सल्य वर्णन किया है वैसा किसी भी साहित्य या कवि ने आज तक नहीं किया है । ये भी कवि की विलक्षण प्रतिभा है कि उन्होंने यशोदा के हृदय के भाव है कृष्ण के प्रति उन्होंने बड़े ही अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है । सूरदास जी ने मातृ हृदय के भावों का वर्णन करने में अद्भुत सफलता प्राप्त की है । ऐसा प्रतीत होता है कि वह मातृ ह्रदय का कोना-कोना झांक आए हैं । सूरदास के काव्य में वात्सल्य रस का भरपूर चित्रण हुआ है । यहां तक कि सूर और वात्सल्य को एक-दूसरे का पर्याय माना जाता है । वात्सल्य रस का एक चित्र देखिए -
सिखवत चलत जशोदा मैया
अरबराई कर पानि गहावत डगमगाई धरनीं धरैं पैंया
कबहुंक सुंदर वदन बिलोकित उर आनंद भरि लेत बलैंया ।
शब्दार्थ -
सिखवत - सिखा रही है , अरबराई - अदबदा कर अथवा घबराकर ,पानि - हाथ ,गहावत- पकड़ना/पकड़ रहे हैं,
व्याख्या - यशोदा मैया श्री कृष्ण को चलना सिखाती है। चलना सीखते समय श्री कृष्ण को हड़बड़ा कर अपनी उंगली पकड़ातीं हैं। और श्रीकृष्ण डगमगाकर पृथ्वी पर अपने कदम रखते हैं आगे सूरदास जी वर्णन करते हैं कि कभी यशोदा मैया कृष्ण के चेहरे को निहारती हैं, उनके हृदय में आनंद भर जाता है और वे श्रीकृष्ण की बलैया लेती है ।
श्रृंगार वर्णन -
सूरदास जी के साहित्य में श्रृंगार वर्णन बेजोड़ है । नायक एवं नायिका के प्रेम का चित्रण श्रृंगार रस कहलाता है। राधा एवं गोपियां श्री कृष्ण से अत्यधिक प्रेम करती हैं। यहां तक कि कृष्ण के प्रेम में सामाजिक मर्यादा भी छोड़ देती हैं । कृष्ण जब बांसुरी बजाते थे तब राधा एवं गोपियां अपना सारा कामकाज छोड़कर उसी जगह की ओर दौड़ पड़ती थीं । सूरदास जी ने श्रृंगार के दोनों पक्षों संयोग एवं वियोग भली-भांति चित्रित किया है ।
कृष्ण एक समय के बाद मथुरा चले गए थे और उनके मथुरा चले जाने के बाद यशोदा मैया नंद बाबा उनके बाल सखा राधा एवं गोपियों का बुरा हाल था। कृष्ण के जाने के बाद राधा और गोपियां उसी प्राकृतिक वातावरण गलियों और बाग बगीचों को देखते हैं तो उनका हृदय बहुत जलता है उन्हें कृष्ण के वियोग का दुख होता है एवं विरह की अग्नि में जलते हैं -
निसि - दिन बरसात नैन हमारे
सदा रहति बरषा ऋतु हम पर,
जब तैं श्याम सिधारे
दृग अंजन न रहत निसि बासर
कर कपोल भाए कारे ।
प्रकृति चित्रण -
सूरदास जी ने ब्रजभूमि का अतिसुंदर प्रकृति चित्रण किया है । कवि ने कृष्ण लीला की पृष्ठभूमि में प्रकृति का चित्रण किया है । प्रकृति के दो रूप हैं एक आलंबन रूप और दूसरा उद्दीपन । आलंबन में प्रकृति का ज्यों का त्यों वर्णन किया जाता है जैसे की बरसात हो रही है फूल खिले हुए हैं इत्यादि । जो प्रकृति हमारे भाव को उद्दीप्त करती है जैसे वहां की जो लताएं है और जो चांद है वो शीतलता के बजाय अग्नि बरसा रहा है उद्दीपन में विशेष रूप से प्रकृति का मानवीकरण होता है । सूरदास जी के काव्य में विशेष रुप से वियोग श्रृंगार में प्रकृति का उद्दीपन रूप का मनोहारी वर्णन हुआ है।
बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं
तब ये लता लगाति अति शीतल
अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं ।
भाषा शैली - सूरदास जी की मुख्य भाषा ब्रिज है इसके साथ साथ कहीं-कहीं इन्होंने अरबी फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया है । लोकोक्तियों, मुहावरों, रस, छंद, एवंअलंकारों का सहज प्रयोग किया है। इनके संपूर्ण पदों में गेयता है । समग्रता सूरदास जी के काव्य का भाव पक्ष एवं कला पक्ष बेजोड़ है।
तब ये लता लगाति अति शीतल
अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं ।
भाषा शैली - सूरदास जी की मुख्य भाषा ब्रिज है इसके साथ साथ कहीं-कहीं इन्होंने अरबी फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया है । लोकोक्तियों, मुहावरों, रस, छंद, एवंअलंकारों का सहज प्रयोग किया है। इनके संपूर्ण पदों में गेयता है । समग्रता सूरदास जी के काव्य का भाव पक्ष एवं कला पक्ष बेजोड़ है।